Strengthening the Swarnkar Community Through Support


श्री ब्राह्मण स्वर्णकार समाज की वेबसाईट मे आपका स्‍वागत है। इस वेबसाईट को आपके समक्ष प्रस्‍तुत करते हुए अत्‍यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है।अपने विशाल समाज की स्थिति को देखते हुए बचपन से मन में एक ललक थी, कि समाज को ऐसा मंच प्रदान किया जाए, जिसके माध्‍यम से श्री ब्राह्मण स्वर्णकार जाति के विषय में सम्‍पूर्ण विश्‍वसनीय जानकारियां एक ही स्‍थान पर उपलब्‍ध हो सके, जिससे श्री ब्राह्मण स्वर्णकार बंधु हमारे इस विशाल समाज को ओर अधिक निकटता से जान-पहचान सके।इन आधारभूत सामग्रीयों के साथ-साथ जाति के इतिहास, परम्‍पराएँ, आन्‍दोलनरतता, संगठन क्षमता, ज्‍वलन्‍त समस्‍याएँ, उद्यमिता एवं एवं परिश्रमशीलता एवं जाति के महापुरुष, राष्‍ट्र निर्माण में योगदान करने वाली विभूतियाँ, क्रांतिकारी एवं स्‍वतंत्रता सेनानी एवं उन्‍मुखता की भावना से ओत-प्रोत अपने अर्जित ज्ञान और अनुभव को आप जैसे सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्‍तुत करने का प्रयास किया गया है

श्री ब्राह्मण स्वर्णकार समाज

आज से उनासी… वर्ष पूर्व दिनांक १ ५, १ ६, १ ७, १ ८ सितम्बर, १ ९२ ३ को महासभा के प्रथम सम्मेलन हाथरस, (उत्तर प्रदेश) में पहली बार जाति के इतिहास ओर महुंमशुमारी (जनगणना) से सम्बन्थित एक लेख पढा गया था ओर यह कैसा सुखद संयोग है कि इस प्रस्तुत जातीय इतिहास के लेखक आचार्य पं. वदरीप्रसादजी साकरिया ही उस उपर्युक्त लेख के लेखक थें । निश्चय ही आचार्यजी का – ह्रदय वडा प्रसत्र होगा कि अनेक व्यवधानों के बाद, यह अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य इनकी ही लेखनी से व इनकी ही अध्यक्षता में सप्पत्र हुआ । परन्तु जब वे अपनी आयु क्री शताब्दी की देहली क्रो छूने ही वाले थे कि उनका स्वर्गवास हो गया ओर इस प्रकार वे उसका प्रकाशित रूप नहीं देख पाये । हाथरस के समाजोत्थान के प्रथम संगठित प्रयास के पन्द्रह वर्ष पूर्व (मई सन् दृ ९ ० ८) तत्कालीन प्तारचाड़ राज्य के प्रथम बैरिस्टर श्रीनारायणदासजी तथा अपने काल के माने हुए विधिवेत्ता श्री प्रतापचन्दजी महेचा की अपील में समाज ‘संगठन के बीज दिखाई पडते हैं । दोनों महाशथों ने एक संयुक्त अपील मेँ समाज का इतिहास लिखने व विधवा विवाह प्रारम्भ करने केतिए निवेदन किया था । समाज सुधार के अन्तर्गत, उस समय विधवा-विवाह की बात करना एक वड़ा दु८साहस था । ‘ वैसे भी इतिहास लेखन अपने आप में एक दुरूह कार्य है और उसमें भी यदि किसी भी प्रकार की सुविधाओं के अभाव मेँ अकेले ही लिखना हो तो इस कार्य की कठिनता का अनुमान लगाया जा सकता है । यह कार्य लेखक के धैर्य व प्रशंसा की दाद मांग लेता है । हाथरस की महासभा के पश्चात् आचार्यंजी- इस कार्य में जी- जान से जुट गये । उन्होंने जाति के इतिहास की बिखरी कडियों को इधर उधर से एकत्रित कर उसको जब व्यावर की द्वितीय महासभा मेँ रखा तो कार्यकारिणी के सभी सदस्यों ने न केवल इस कार्य कीं एक स्वर से प्रशंसा की” बल्कि इस क्षेत्र मेँ की गई आचार्यजी की अमूल्य सेवाओं क्रो लक्ष्य मेँ रख, एक प्रस्ताव द्वारा उन्हे “पण्डित” कीं उपाधि से विभूषित किया गया । यह प्रथम अवसर था, जब किसी सदस्य की सेवाओ का इस प्रकार वहुमान किया गया हो । धोड़े समय पश्चात् आचार्यजी ने “घोडे का झगड़ा” नामक पुस्तक की पाषडुलिपि व इतिहास सम्बन्धित सारी संशोधित व परिवरिहूँत सामग्री तत्कालीन मम्बी श्री मथुराप्रसादजी चाड़मेरा को मुद्रण हेतु सौंप दी । क्योंकि उस समय की इतिहास समिति ने उन्हें यह अधिकार दिया था कि वे इसे समिति की ओर से प्रकाशित करें । इसे हमारा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इसके बाद श्री बाड़मेरा का देहावसान हो गया ओर बहुत तलाश करने पर भी पांडुलिपि का पता नहीं लग सका 1 पुन: सामग्री एकत्रित की गई, पर उसकी भी वही दुर्दशा हुई । आज सत्तर वर्षों की सतत मेहनत के पश्चात् समाज को महिमामण्डित करने वाला उनका यह अत्यन्त सराहनीय कार्य समाज को अर्पित ‘हो रहा है . । अनेक वर्षो के अंतराल _क्रै पश्चात् प्रो. रामस्वरूपजी (लाडप्पू) के एक पत्र (9 ०… १ २ ८ १ ९ ८४) मेँ निहित सुझाव पर इतिहास लेखन की महत्ता को समझ, जोधपुर समाज की कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर, वहाँ के निष्ठावान अध्यक्ष श्री , रामचन्द्रजो मंडोरा व मची श्री अमृतलालजी जसमतिया को अधिकार दिये कि वे इससे सम्बन्धित पंहानुभावों की बैठक बुला कर कार्य का श्रीगणेश करें । इन दोनों महाशयों हुँ “के सदूप्रयत्वों से पं. वदरीप्नसादजी की अध्यक्षता में न्याति नोहरे में निम्म सदस्यों की ३ ‘ एक त्रिदिवसीय बैठक बुलाई गई (१) आचार्य पं. बदरीप्रसादजी साकरिया (२) पं. ज्वालाप्रसादजी शास्वी (३) डॉ. चन्द्रदेवजी शर्मा (४) प्रो. रामस्वरूपजी काला (५) डॉ. ‘ मोहनलालजी जिज्ञासु (६) पं. गोबिन्द रामजी हेड़ाऊ (७) श्रीदृ..मुरलीधरजी कट्टा (८) श्री देवकृष्णजी कश्यप (९) श्री मनौहरलालजी रे आर्य (9 ०) श्री रामचंद्रजी मंडोरा (9१) श्री अमृतलालजी जसमतिया (9 २) श्री मानमलजी खटोर (१ ३) प्रो. घूपतिराम साकरिया । उपर्युक्त बैठक में सर्वश्री प्रो. रामस्वरूपजी, गोविन्दरांमजी, ३ पं. ज्वालाप्रसादजी, आचार्य पं. बदरीप्रसादजी, डॉ. चन्द्रदेवजी व देवकृष्णजी ने पत्रबाचन विशे । अंत में तय हुआ कि हमारा समाज तपोनिष्ठ ब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध है ।

History


अठारह मुख्य पुराणों (ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कंद, वामन, @, मत्स्य, गरुड़ और ब्रह्मांण्ड) के अतिरिक्त “देवी भागवत” उन्नीसवां पुराण माना जाता है । अठारह उपपुराण (सनत्कुमार, नृसिंह, नंद, शिवधर्म, दुर्वासा, नारदीय, कपिल, Sy, मानव, वरुण, काली, महेश्वर, सांब, सौर, पाराबार, मारीघ्र और भार्गव) हैं । विष्णुधर्मोत्तर और बृहद्धर्म भी दो उपपुराण माने जाते हैं । कालान्तर में अनेक और पुराण संज्ञक ग्रंथ निर्मित होते गये । आज इनकी संख्या सौ से ऊपर है । वशिष्ठ पुराण, कलियुग पुराण, नीलमत (काश्मीर) पुराण, अर्बुद पुराण, पुष्कर पुराण और श्रीमाल पुराण आदि अनेक ऐसे पुराण हैं, जो किसी जाति, व्यक्ति, प्रदेश और युग के वाचक हैं । लगता है कि इन सारे पुराणों से भी प्राचीन “तपोनिष्ठ पुराण” है, जिसे व्यासजी ने अर्बुदाचल पर ‘तपोनिष्ठ ब्राह्मणों की अनुपम तप साधना को देख सुन तथा उनकी साधना से प्रभावित होकर उमकी प्रशंसा में सर्जित किया था । यह अर्बुदाचल के रम्य व्यास आश्रम की भव्य प्रसादी है । एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि अठारह पुराणों तथा अन्य. पुराणों की प्रामाणिकता पर सदैव एक प्रश्न चिन्ह बना रहा है । बौद्धों, जैनों, आर्य-समाजियों और यहां तक कि प्रबुद्ध सनातनी भी आज इनके काल और इनकी कथाओं की अब्यावहारिकता का जोरदार खण्डन करते हैं । इन पुराणों में अनेक ऐसी बातें हैं जो इतिहास से मेल नहीं खाती । फिर इन पुराणों में कई जातियों की उत्पत्ति का वर्णन है, जिनका पुराणों की रचना काल में कोई आस्तित्व ही नहीं था । पुराण सृष्टि का वर्णन भी भिन्न भिन्न ढंग से करते ¥ – आधुनिक ब्राह्मणों की शताधिक जातियों के नामों का उल्लेख तक पुराणों में नहीं है यथा-दाहिमा, पारीक, कन्नोजिया, श्रीमाली, खेड़ावाल, मेवाड़ा, सांचोरा पुष्करणा गुजरगौड़ आदि | पर चूंकि तपोनिष्ठ पुराण धर्मनिष्ठा से ओतप्रोत है तथा इतिहास-साक्ष्य है, अतएव उसमें उपर्युक्त अव्यावहारिकताओं का समावेश नहीं है ।

दो सौ-ढाई सौ वर्ष पूर्व काशी के इतिहास, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा व्याकेरणादि के प्रकाण्ड पंडित भवनिधि शर्मा ने. तपोनिष्ठ पुराण का संस्कृत संक्षिप्तीकरण किया था । इसी का हिन्दी अनुवाद बालोतरा के प्रसिद्ध विद्वान पं. विश्वनाथ शर्मा के बड़े भाई पं. लक्ष्मीनारायण दवे ने अपनी शैली में किया था । पं. लक्ष्मी नारायणजी काशी में वानप्रस्थी के रूप में निवास करते थे । वानप्रस्थी बनने के पूर्व व उसके बाद भी पं. लक्ष्मीनारायण जी काशी के ही एक पुस्तकालय में हस्तालिखित ग्रंथों का संपादन कार्य कर, अति सादगी से अपना जीवन निर्वाह करते थे तथा काशी में ही भगवानानंद में मस्त रहते थे । पं, लक्ष्मीनाराण जी, आचार्य पं. बदरीप्रसाद साकरिया के गहरे मित्रों में से थे । उन्होंने यह अनुवाद आचार्य जी के लिये किया था । पर विधि की विचित्रता देखिये कि यह अनुवाद विक्रेताओं के हाथों चढ़ गया, जो अन्त में जसौल गांव के श्री हस्तीमलजी जैन को मिला । श्री जैन ने बालोतरा के एडवोकेट श्री रामकर्ण गुप्त को बेच दिया । श्री रामकर्ण आचार्य जी को अपना बड़ा भाई समझते थे और जैसे ही उन्होंने यह प्रति पढ़ी, उन्होंने आचार्यजी को सूचित किया । आधार्यजी ने उसकी प्रतिलिपि की, जो यहाँ प्रस्तुत है । यह सर्व दृष्टि से प्रामाणिक है ।

इसे हमारा सौभाग्य ही समझना चाहिये कि बाहा आक्रमणकारियों और कुछ देषी संप्रदायों द्वारा हमारे संस्कृति के प्रतीक मंदिरों और पुस्तकालयों को बड़ी मात्रा में जलाने
के पश्चात्‌ भी तपोनिष्ठ पुराण का यह वर्तमानस्वरूप किसी प्रकार बचा रहा, जो हमारी जाति का संबल बना । परमात्मा का इसके लिये कोटिशः उपकार |

उपलब्ध तपोनिष्ठ पुराण सात अध्यायों में विभाजित है । प्रथम अध्याय में सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन है । द्वितीय में पुष्करारण्य और अर्बुदाचल क्षेत्र की महिमा है । तृतीय में मरुधन्व प्रदेश की उत्पत्ति का वर्णन है । चतुर्थ में मरुधन्व को शस्यश्यामल और द्रुमकल्य बनाने का विवरण है । पंचम में अर्बुदाचल और आदिवलय (आडवला) पर स्थित विभिन्न तीथों का वर्णन है । षध्म अध्याय में पुष्करारण्य क्षेत्र तथा पुष्कर का महात्प्य व तपोनिष्ठ ब्राह्मणों की आबू में उत्पत्ति और सप्तम अध्याय में तपोनिष्ठ ब्राह्मणों को भगवान्‌ विष्णु व भगवती लक्ष्मीजी के दर्शन तथा @byl के निर्माण का उनके अहैतुक व अनमांगे विचित्र वरदान का वर्णन है । अन्त में तीन परिशिष्ठ दिए गए हैं ।

अर्बुदाचल स्थित “’देवाजिर” का वर्णन करना यहां संगत ही होगा, क्योंकि वहीं हमारा उत्पत्ति-स्थान है । आबू पर्वत पर जब इतिहास समिति की बैठकें हो रही थीं, तो एक दिन प्रो. साकरिया, श्री बाबूभाई कश्यप की सहायता से स्थानीय पर्वतारोहण संस्था के एक कर्मचारी को साथ लेकर उस पुण्यभूमि के दर्शन कर आये । रमणीय पर दुर्गम घाटी में स्थित देवाजिर सनसेट पांईट से दो मील नीचे उत्तर में है । वहां के विस्तृत क्षेत्र में फैले मंदिरों और आश्रमों के भग्नावशेष इस बात के साक्षी हैं कि अपने काल में इस तपोभूमि का देश में बड़ा महत्व रहा होगा । उन खण्डहरों में प्राप्त भगवान शिव की विशाल त्रिमूर्ति आज अनादरा गांव की शोभा बढ़ा रही है । आज देवाजिर में जीर्णशीर्ण अवस्था में एक चतुर्भुज विष्णु का मंदिर अवस्थित है । काले पत्थर से निर्मित यह मूर्ति थोड़ी खण्डित, पर भव्य है, सं. १६८४ में इस मन्दिर के पुनरूद्वार का वहां एक शिलालेख है, जो मन्दिर के द्वार पर दीवार में जड़ित है ।समाज को चाहिये कि शीघ्रताशीघ्र इस मन्दिर की मरम्मत आदि करवा तथा पूजादि की व्यवस्था कर, इस गौरवमय जाति स्थल पर प्रति अक्षय तृतीया के शुभ दिन तीर्थ यात्रा की जाय । यहीं से एक मील दूर भगवान सूर्यनारायण (दो मंदिरों में से अब एक ही शेष है) का मन्दिर है । सप्त अध्चों द्वारा चालित रथारूढ़ भगवान सूर्य की प्रतिमा सुन्दर है । यहां से उत्तर की ओर वासस्थानजी नामक एक स्थान है, जहां एक बड़ी गुफा में भगवान विष्णु की १८ फीट लम्बी, 9२ फीट चौड़ी ६ फीट ऊंची भव्य मूर्ति है ।

यद्यपि सात अध्यायों में तनोनिष्ठ पुराण पूर्ण नहीं होता है, पर एक स्थान पर टिप्पणी में अनुवादकर्ता ने इसके दस अध्याय बतलाये हैं । इन अगले तीन अध्यायों में तनोनिष्ठ ब्राह्मणों के संतान होने और उनके नामादि पर गोत्रों की स्थापना व निगमादि ग्रंथों का वर्णन है, जिन्हें अनुवादकर्ता अपनी बीमारी के कारण लिपिबद्ध न कर सका |

-डॉ. भूपतिराम साकरिया

4-TAPONISTH-BRAHMANO-KA-ITIHAS-1

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